Tuesday, December 19, 2017

आखिर मेरा हक़ ही क्या?


आखिर मेरा हक़ ही क्या 
की पूछूं तुमसे -
करते हो मुझसे प्यार ? 
हम-तुम तो नदी के दो किनारे...
एक इस पार ...एक उस पार।  

मैंने  किया ही क्या है 
अब तक ?  
कुछ भी तो नहीं।  
बस, ब्याह के नाम पर 
हाँथ थाम लिया तुम्हारा ...
और छोड़ मायके की देहलीज़ 
आ गई संग, नि:संकोच ...  
सात समंदर पार। 

आखिर मेरा हक़ ही क्या 
की पूछूं तुमसे -
करते हो मुझसे प्यार ? 

इस मिलन के मायने ही क्या ?
कुछ भी तो नहीं। 
बस, बेतुकी  सी कुछ भावनाएं हैं ... 
और, दो मोती अनमोल।  
एक प्यारा सा अंश ज़िन्दगी का,  
एक खिलती सी मुस्कान,  
और कुछ बहते आंसू ...
जैसे मेघ-मल्हार ! 

आखिर मेरा हक़ ही क्या 
की पूछूं तुमसे -
करते हो मुझसे प्यार ?

यह प्यार आखिर है ही क्या? 
कुछ भी तो नहीं।
बस, बेतुका सा एक अल्फाज़.... 
जैसे सागर की आती -जाती लहरें ,
बहती चली गई जिन में मैं 
बारम्बार... बारमबार...!

आखिर मेरा हक़ ही क्या 
की पूछूं तुमसे -
करते हो मुझसे प्यार ? 
हम-तुम तो नदी के दो किनारे...
एक इस पार ...एक उस पार।  

Preeti Bhatia