Saturday, April 07, 2007




एक और मंज़ील





बहुत सोचा कीये थे हम
कौनसी राह जाएंगे
ना मालूम था मगर,
तकदीर क्या लीये खादी है.
दो राहें हो या चार,
वह तो एक नई मंज़ील पर अड़ी है.

नई आशाएं, नई उमंगें,
नई राहें पुकार रहीं...
जाएं ना जाएं, उठ रह द्वंद
मन में मोह कि बेंड़ींंयां पड़ीं.

दर छुटा, घर छुटा
बचपन भरा शहर छुटा,
छुटा प्यारों का साथ भी.
करें क्या, क्या ना करें
यह सोच रहे...
छुटा ममता भरा हाथ भी.

अब लगता है...
क्या सही था
सभी अपनों को छोड़ आना?
आज नही कल सही
कभी तो उनसे था दूर जाना.
इसी असमंजस में डूबे हुए थे
की आया फीर ख़याल वही
'लाख कोशीशें करें यारों
तक्दीर पर कीसी का ज़ोर नहीं!'

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